हिंदी फीचर फिल्म लीगल बाबा जल्द आ रहा आपके सामने हंसाने गुदगुदाने.....
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हिंदी फीचर फ़िल्म लीगल बाबा जो जल्द ही आपके समक्ष आपको हँसाने गुदगुदाने और रुलाने के लिए एक सामाजिक संदेश के साथ आने वाली है जिसका फिल्मांकन किया जा चूका है | इस फ़िल्म के निर्देशक के बारे मे अगर विस्तार रूप से बात की जाये तो काफ़ी जुझारू प्रवृति व फिल्मों के प्रति लगाव रखने वाले निर्देशक के रूप मे अभिनव जी दीखते है अपना बचपन बेगूसराय में बिताने वाले अभिनव ठाकुर को पारिवारिक परिस्थितियों के चलते अचानक अपना घर बार छोड़कर ननिहाल मुंबई जाना पड़ा और आगे की पढ़ाई उन्होंने वहीं की। ग्रेजुएशन के बाद एमबीए और उसके बाद साल भर की बैंकिंग की नौकरी उन्होंने की तो लेकिन वह उन्हें रास बिल्कुल नहीं आई, उनका मन सिनेमा की ओर ही लगा रहा। उन्होंने पुणे के फिल्म संस्थान से बाकायदा पढ़ाई की, उसके बाद फिर कभी पीछे मुड़ कर घर परिवार और नौकरी की ओर नहीं देखा। लघु फिल्मों से अपनी फ़िल्म यात्रा शुरू करने वाले अभिनव अनुराग कश्यप और इम्तियाज़ अली को अपना गुरु मानते हैं।
मेरी जानकारी यह है कि बतौर निर्देशक अभिनव ठाकुर की पहली लघु फ़िल्म "दहलीज़: एक कहानी हमारी भी" 2016 में रिलीज़ हुई थी जो यू ट्यूब पर देखी जा सकती है।
एक दूसरे से बिल्कुल अलग विषयों पर बनाई गई जुंको, रंगमंच, रेडियो,ये सुहागरात है इंपॉसिबल इत्यादि अभिनव की कुछ महत्वपूर्ण फ़िल्में हैं। बिहार दिवस के आयोजन में पटना में खचाखच भरे हॉल में दिखाईं गई फ़िल्म "द लिपस्टिक ब्वॉय" बिहार पूर्वी उत्तर प्रदेश में लोकप्रिय लौंडा नाच के एक मशहूर कलाकार कुमार उदय सिंह के जीवन संघर्ष पर केंद्रित है। एक ओर मुख्य किरदार का इस लोक नृत्य के प्रति वास्तविक निष्ठा और खिंचाव है तो दूसरी ओर बदलते माहौल में इसके दरकते अर्थतंत्र और परिवार और समाज में मिले तिरस्कार की गंभीर चुनौती है।
लेखकों को अक्सर यह कहते हुए सुना है कि उन्होंने कहानी खुद ब खुद नहीं लिखी बल्कि कहानी के पात्रों ने उनसे कह कर अपनी कहानी लिखवा ली।अभिनव ठाकुर से बात करते हुए यह उजागर हुआ कि "द लिपस्टिक ब्वॉय" की कहानी भी उन्होंने खुद नहीं लिखी बल्कि लौंडा नाच के प्रमुख समकालीन कलाकार कुमार उदय सिंह ने न सिर्फ़ उनसे हाथ पकड़कर लिखवा ली बल्कि एक प्रभावशाली व मुकम्मल फ़िल्म भी बनवा ली। शुरुआत से लेकर स्क्रीन पर दिखाए जाने के बीच 6 - 7 साल का फ़ासला है (इनमें से दो साल कोरोना की बलि चढ़ गए)। निर्देशक को निकुंज शेखर जैसे बिहार को प्रेम करने वाले प्रोड्यूसर मिले जिनके बेशर्त सहयोग से फ़िल्म अपनी परिणति तक पहुंच पाई। फ़िल्म की पूरी शूटिंग बिहार में और बिहारी कलाकारों को लेकर की गई है।
'लौंडा नाच' भले ही हम इसे बोलें लेकिन किसी न किसी रूप में भारत और अन्य देशों में सदियों से स्त्रियों की वेशभूषा में मंच पर उपस्थित होकर पुरुषों का अभिनय और नृत्य करना चलता रहा है - शील और मर्यादा का हवाला देकर कलाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन स्त्रियोचित कार्य नहीं माना गया है। लेकिन मनोरंजन की अनिवार्य ज़रूरत को देखते हुए समझौते का रास्ता यह निकाला गया कि मंच पर स्त्री किरदार होंगे तो लेकिन उनकी भूमिका पुरुष निभाएंगे। उदय शंकर,केलुचरण महापात्र, राम गोपाल,बिरजू महाराज,गोपी कृष्ण जैसे नामचीन कलाकारों ने लंबे संघर्ष के बाद कला जगत में अपनी प्रतिष्ठाजनक जगह बना ली... बाद के वर्षों में अस्ताद देबू जैसे नर्तक को पद्म पुरस्कार दिया गया। पर पुरुष नर्तक होने के कारण उन्हें जिस तरह समाज, जाति और परिवार की उपेक्षा,तिरस्कार और प्रताड़ना सहनी पड़ी उस के बारे में मुंह पर ताला ही लगा कर रखा गया। इन्हें जातिगत और लिंग आधारित अपमान दोनों झेलने पड़े। ध्यान रहे समाज के निचले पायदान के कलाकार ही इस तरफ़ आए क्योंकि उच्च जाति ने इस कला को निकृष्ट माना।
इन्हीं पारिवारिक सामाजिक आर्थिक दबावों के बीच कुमार उदय का जीवन भी ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर चलता है जिसमें एक तरफ़ भिखारी ठाकुर के दिखलाए रास्ते पर चलने का आदर्श मन में है तो दूसरी ओर अपना सम्मान और परिवार बचाने की चुनौती। फ़िल्म में मनोज पटेल कुमार उदय की भूमिका में गहरे उतर कर दर्शकों के दिलों तक पहुंचने में सफल हुए हैं तो सभी साथी कलाकारों ने भी भरपूर साथ दिया है। कई कई बार बिहार आकर और संबद्ध लोगों से मिल बात कर अभिनव ने अपने विषय की अंतरंग जानकारी हासिल की और कहीं कोई असावधान कोना छोड़ा नहीं - फ़िल्म के संवादों और संगीत में यह मेहनत पूरी तरह झलकती है।
अभिनव का मानना है कि बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में सिर्फ स्कैंडल, अपराध या बंदूकों का ही बोलबाला नहीं है बल्कि बहुत सारी ऐसी कहानियां हैं जिन्हें करेक्ट फॉर्म में करेक्ट फ़िल्म के तौर पर दिखाए जाने की जरूरत है। द लिपस्टिक ब्वॉय में वे एक मशहूर लौंडा नाच कलाकार के दर्द की फ़िल्म रुप में ईमानदार अभिव्यक्ति करते हैं। भले ही दशकों से वे बिहार से दूर रहे हों लेकिन उनका पक्का मानना है कि बिहारी समाज में बहुत सारी बेहतरीन कहानियां हैं जिनको एक्सप्लोर करने की ज़रूरत है। वैसे केरल और गुजरात/राजस्थान की अपेक्षाकृत अल्पज्ञात घटनाओं पर आधारित उनकी दो फ़िल्में लगभग तैयार हैं लेकिन जल्दी ही वे बिहार की एक कहानी लेकर फिर से अपनी जन्मभूमि पर आकर फ़िल्म बनाने को लेकर खासे उत्साहित हैं।
अभिनव ने बातचीत में बताया कि जीवन ने उन्हें अकेलापन बहुत दिया है और वह लगभग उनकी हर फिल्म में कहीं न कहीं दिखाई देता है। लेकिन विषम से विषम परिस्थिति में उन्होंने बेहतर जीवन की उम्मीद कभी नहीं छोड़ी। द लिपस्टिक ब्वॉय में भी तमाम मुश्किलों के बीच हंसी मज़ाक और उम्मीद के अंकुर फूटते हुए देखे जा सकते हैं। मुझे सबसे अच्छी बात यह लगी कि लंबी बातचीत के बाद उठते हुए अभिनव ने यह कहा कि मुझे कोई अच्छी प्रेम कहानी सुझाइए जिसे मैं अपनी आगामी फ़िल्म में पिरो सकूं।
देखना यह होगा कि बिहार सरकार इस मृतप्राय लोक कला को फ़िल्म की एक स्क्रीनिंग तक अपनी भूमिका सीमित कर देती है या आगे इसके व्यावहारिक प्रचार प्रसार और इससे जुड़े कलाकारों की बेहतरी के लिए भी कुछ करने की जिम्मेदारी निभाती है।