एक बार फिर बिहार फूँकेगा बिगुल --केंद्र की सरकार बदलने को लेकर विपक्षी हुए एकजुट .. क्या है सियासी रंजीश ?
NBL PATNA : केंद्र की पहली गैर- कांग्रेसी सरकार बनाने की बुनियाद और तत्कालीन केंद्र सरकार को उखाड़ फेंकने की आधारशिला बिहार की राजधानी पटना में ही रखी गयी थी. आजाद भारत में वर्ष 1977 के आंदोलन की गूंज आज भी सुनाई पड़ती है. तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने केंद्र की इंदिरा गांधी के शासन के खिलाफ बिगुल फूंका था और 1977 में पहली बार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गैर- कांग्रेसी सरकार बनी थी. तब संयुक्त बिहार की 54 लोकसभा सीटों में से 52 पर भारतीय लोकदल ने जीत दर्ज की थी और एक पर जनता कांग्रेस और एक पर निर्दलीय ने जीत हासिल की थी. भारतीय लोकदल, जनसंघ और कांग्रेस (ओ) ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया था.
1989 में भी कांग्रेस की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के खिलाफ जनता दल ने अकेले बिहार की 54 में से 32 सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा ने पहली बार आठ सीटें जीती थीं. कांग्रेस महज चार सीटों पर सिमट गई थी. वाम दलों ने भी पांच सीटें जीती थीं जिसने वीपी सिंह सरकार को समर्थन दिया था. एक बार फिर बिहार केंद्र की सत्ता के खिलाफ सियासी प्रयोग की जमीन बनता दिख रहा है. वर्ष 2014 में पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने वाराणसी को अपना चुनाव क्षेत्र चुनकर पूर्वी राज्यों खासकर यूपी और बिहार को खास संदेश देने की कोशिश की थी, जहां से कुल लोकसभा के 120 सांसद चुनकर आते हैं. उसी तर्ज पर विपक्षी गठबंधन वाराणसी से करीब 250 किलोमीटर पूर्व की ऐतिहासिक नगरी पाटलिपुत्र से विपक्षी महाजुटान का संदेश बिहार, झारखंड, यूपी और पश्चिम बंगाल को देना चाह रहा है, जहां से कुल 176 सांसद चुनकर आते हैं. यह संख्या कुल लोकसभा सदस्यों की संख्या का एक तिहाई से ज्यादा है.
बिहार में जेडीयू और राजद के मिलने से भाजपा की स्थिति कमजोर हुई है, वहीं पश्चिम बंगाल में भाजपा अभी भी दूसरे नंबर की पार्टी है. झारखंड में भी भाजपा कमजोर है, लेकिन उत्तर प्रदेश में भाजपा अभी भी मजबूत स्थिति में है. वहां 80 लोकसभा सीटें हैं. विपक्षी दलों की मंशा है कि विपक्षी एकता स्थापित कर उत्तर प्रदेश समेत इन सभी राज्यों में बीजेपी को कड़ी चुनौती दी जाए. बिहार की दोनों सत्ताधारी पार्टी राजद और जदयू लंबे समय से पिछड़ों, अति- पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों के वोट बैंक की राजनीति करती रही है. दोनों दलों के एक साथ आने से राज्य की करीब 35 से 40 फीसदी जातीय आबादी को महागठबंधन के पक्ष में होने का दावा किया जा रहा है. विपक्षी दलों की कोशिश है कि पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों की विपक्षी गठबंधन के प्रति लामबंदी का संदेश बिहार से निकलकर अन्य राज्यों में भी जाएगा और उससे 2024 के चुनावों में बीजेपी के खिलाफ हवा बनाने में सफलता मिल सकेगी. विपक्षी दल भाजपा को पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक विरोधी बताते रहे हैं. हालिया चुनावों में कांग्रेस ने भी इस राह को पकड़ कर बढ़त हासिल की है.
बिहार में विपक्ष के इस महाजुटान के पीछे क्षेत्रीय दलों की ताकत को पहचानने और उसे तवज्जो देने का भी एक स्पष्ट संदेश जैसा है. पिछले एक दशक में केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय फलक पर भाजपा के उभार ने राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों को कमतर किया है. ऐसे में अगर भाजपा को चुनौती देनी है तो क्षेत्रीय दलों की भूमिका 2024 के आम चुनावों में महत्वपूर्ण हो जाती है. उम्मीद की जा रही है कि लोकसभा चुनावों की लड़ाई में बीजेपी को हराने के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, झारखंड, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, दिल्ली, पंजाब और जम्मू- कश्मीर में क्षेत्रीय दल अहम भूमिका निभा सकते हैं. विपक्षी गठबंधन में क्षेत्रीय दल इसलिए भी अहम माने जा रहे हैं क्योंकि भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए गठबंधन के खिलाफ लगभग 300 सीटों पर उम्मीदवार उतार सकते हैं.