यहां लाशों पर होती है सौदेबाजी, सरेआम चलता है मोल-तोल का खेल, सरकारी कर्मी ने ही बहाल कर रखे हैं दो निजी कर्मी...

यहां लाशों पर होती है सौदेबाजी, सरेआम चलता है मोल-तोल का खेल, सरकारी कर्मी ने ही बहाल कर रखे हैं दो निजी कर्मी...

आरा : भोजपुर जिले का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल सदर अस्पताल है। यहां शवों पर भी सौदा होता है। कहने का मतलब कि यहां शवों के पोस्टमॉर्टम करने की एवज में सरेआम गमजदा परिवार से रुपये लिए जाते हैं। पोस्टमॉर्टम करने से लेकर लाश को टांका लगाने तक खुलेआम मोल-तोल होता है। यह सब सौदेबाजी का खेल डॉक्टरों और पोस्टमॉर्टम कराने आए पुलिसकर्मियों के आंखों के सामने चलता है। लेकिन, फिर भी कोई कार्रवाई या कारगर पहल नहीं की जाती है।

गमजदा परिवार अपनो के खोने के बाद भी उनकी जेब भरने को विवश है। संध्या समय पोस्टमॉर्टम हाउस के बाहर भीड़ लगी थी। बड़हरा के सिन्हा गांव में एक मजदूर परिवार के बच्ची की सर्पदंश से मौत हो गई थी। स्वजन थाने के चौकीदार के साथ शव को पोस्टमॉर्टम के लिए सदर अस्पताल लाए थे।

पोस्टमॉर्टम कर्मी शव का चिर-फाड़ करने के बाद 500 रुपये की डिमांड करने लगा। उसका कहना था कि पूरा पैसा नहीं मिलेगा तभी लाश की सिलाई करेगा। स्वजन गरीब परिवार का हवाला देते हुए पहले दो सौ और फिर तीन सौ रुपये दिए। लेकिन, प्राइवेट पोस्टमॉर्टम कर्मी पैसा लौटाने लगा। बाद में हर थाक कर स्वजनों को पांच सौ रुपये देने पड़े।

शीशे के बर्तन, साबुन से लेकर नमक तक की वसूली...

यहां पोस्टमॉर्टम की एवज में रुपये देने ही पड़ते हैं। यहां कार्यरत प्राइवेट कर्मी मृतक के स्वजनों की हैसियत देखकर रकम तय करते हैं। खाकी से लेकर अत्यंत गरीब तक से भी रुपये लिए जाते हैं। पांच सौ रुपये से लेकर एक हजार रुपये की डिमांड की जाती है। इसके अलावा, पोस्टमॉर्टम समेत बिसरा के लिए प्रयुक्त सामान जैसे शीशे का जार, साबुन से लेकर नमक तक गमजदा स्वजनों को ही देना पड़ते हैं। अमूमन हर वर्ष एक हजार शवों का पोस्टमॉर्टम यहां होता है। अगर प्रतिमाह के हिसाब से देखें तो करीब 80 से 90 शवों का पोस्टमॉर्टम होता है। इसमें सर्वाधिक सड़क व दुर्घटना समेत हत्या से जुड़े मामले होते हैं।

हाय रे सिस्टम! सरकारी कर्मी ने ही बहाल कर रखे हैं दो निजी कर्मी...

किसी भी व्यक्ति की मौत के बाद उसकी मृत्यु का सटीक कारण का पता लगाने के लिए पोस्टमॉर्टम किया जाता है। जहां विशेषज्ञ चिकित्सक शव का बाहरी निरीक्षण करते हैं या जरूरत पड़ने पर शरीर के अंदर के अंगों की भी जांच करते हैं। अब यहां हैरानी ती बात तो यह है कि सदर अस्पताल में पोस्टमॉर्टम के लिए सिर्फ एक सरकारी कर्मी वर्ष 2011 से ही कार्यरत है। सिस्टम का खेल यह है कि सरकारी कर्मी ने ही दो प्राइवेट कर्मी रखे हैं, जो अलग-अलग शिफ्ट में आकर शवों का पोस्टमॉर्टम करते हैं।

लावारिस शवों को भी नहीं छोड़ते, वार्दी वालों से भी ले लेते हैं पैसे...

यहां पोस्टमॉर्टम के लिए आने वाले लावारिस शवों को भी नहीं छोड़ा जाता है। लावारिस के स्वजन तो होते नहीं हैं। ऐसे में पोस्टमॉर्टम के लिए शव लेकर आने वाले पुलिस विभाग के बाबुओं को ही अपनी जेब से रुपये देने पड़ते हैं। पैसा देना उनकी मजबूरी है, क्योंकि शव के डिस्पोजल की उनकी ड्यूटी लगी होती है। वे ऐसे ही शव को छोड़ नहीं सकते हैं। डॉक्टर भी यह कहते हैं कि जब तक पोस्टमॉर्टम करने वाला कर्मी नहीं आएगा तब तक वे नहीं जाएंगे।